मेरी सुबह
शुरू होती
है, जब
मेरी छत
पर चिड़ियाँ
आकर चहचहाती
हैं, और
धीरे कबूतर
भी आकर
"गुटरगूं" करते है...इनके
साथ-साथ
कुछ "कौए"
भी आ
जाते हैं....
और मेरा
इंतज़ार करते
हैं.....
मैं रोजाना ही , अन्य दिनों की तरह अपने हाथ में "बाजरे के दाने " से भरा हुआ जार लेकर छत पर आ जाता हूँ..... मेरी छत पर एक कमरा भी है जिसमे घर के "चावल " रखे होते हैं... एक -एक मुठ्ठी "चावल" और "बाजरा" अपनी छत की मुंडेर पर रख देता हूँ.... साथ में एक बड़ा कटोरा पानी भरकर रख देता हूँ.....
मन को बहुत सकून देता है यह सब करना.... कई साल से यह क्रम निरंतर चल रहा है.... और फिर एक-एक मुठ्ठी उस मुंडेर के कोने में भी रख देता हूँ... जहाँ हवा का असर कम हो...क्योंकिं कभी-कभी तेज़ हवा से मुंडेर पर रखे सारे दाने बिखर कर नीचे सड़क पर गिर जाते हैं.... दो-मंजिला घर है....
कबूतर और कौए तो शायद कही दूर से आते हैं ....मगर चिड़ियाँ ( गौरया) हमारे पड़ोस वाले घर में जो एक छोटा सा पेड़ है... सब वहीं रहती हैं....
शुरू -शुरू में शौक था.....पर अब एक ज़िम्मेदारी सी महसूस होती है.... रोज जो आते हैं अब वो सब... पक्षी... जिस दिन थोडा लेट हो जाता हूँ.... मन में एक अपराध बोध सा लगता है....
ना जाने कैसे यह मेरा कार्य शुरू हुआ...और अब मेरी ज़िन्दगी की सुबह का अटूट हिस्सा है.... अपनेपन का अहसास दिला जाते हैं... मेरे करीब आ जाते हैं.... उड़ते भी नहीं हैं... एक अटूट नाता सा जो जुड़ गया है इन सबके साथ....
मैं रोजाना ही , अन्य दिनों की तरह अपने हाथ में "बाजरे के दाने " से भरा हुआ जार लेकर छत पर आ जाता हूँ..... मेरी छत पर एक कमरा भी है जिसमे घर के "चावल " रखे होते हैं... एक -एक मुठ्ठी "चावल" और "बाजरा" अपनी छत की मुंडेर पर रख देता हूँ.... साथ में एक बड़ा कटोरा पानी भरकर रख देता हूँ.....
मन को बहुत सकून देता है यह सब करना.... कई साल से यह क्रम निरंतर चल रहा है.... और फिर एक-एक मुठ्ठी उस मुंडेर के कोने में भी रख देता हूँ... जहाँ हवा का असर कम हो...क्योंकिं कभी-कभी तेज़ हवा से मुंडेर पर रखे सारे दाने बिखर कर नीचे सड़क पर गिर जाते हैं.... दो-मंजिला घर है....
कबूतर और कौए तो शायद कही दूर से आते हैं ....मगर चिड़ियाँ ( गौरया) हमारे पड़ोस वाले घर में जो एक छोटा सा पेड़ है... सब वहीं रहती हैं....
शुरू -शुरू में शौक था.....पर अब एक ज़िम्मेदारी सी महसूस होती है.... रोज जो आते हैं अब वो सब... पक्षी... जिस दिन थोडा लेट हो जाता हूँ.... मन में एक अपराध बोध सा लगता है....
ना जाने कैसे यह मेरा कार्य शुरू हुआ...और अब मेरी ज़िन्दगी की सुबह का अटूट हिस्सा है.... अपनेपन का अहसास दिला जाते हैं... मेरे करीब आ जाते हैं.... उड़ते भी नहीं हैं... एक अटूट नाता सा जो जुड़ गया है इन सबके साथ....
जब हम किसी से जुड़े हैं तो खुले मन से साथ निभाना भी है...है ना...
बस प्रभु से यही चाहता हूँ....यह पक्षियों की टोली हमेशा मेरे घर की छत पर आती रहे... "इंतज़ार और मिलने " की यह परंपरा बस यूँ ही चलती रहे....
मैं इस दुनिया में रहूँ या ना रहूँ.... मेरे जाने के बाद यह ज़िम्मेदारी मेरे बच्चे इसी तरह निभाते रहें.....