6/27/2010

"विवेका बाबाजी" के सन्दर्भ में....



क्या जीवन जीना, इतना कठिन हो जाता है कि खुद को ख़त्म करना ही एकमात्र रास्ता बचता है ऐसा क्यों ?
हम सभी एक समाज में रहते हैं... यूँ तो हम सब बस अपने में ही खोये रहते हैं....

पर कभी-कभी कोई बात हमें कुछ सोचने पर मजबूर कर देती हैयह ज़रूरी नहीं कि मरने वाले व्यक्ति से हमारा कोई नाता ही हो

आज
समाज में जो भी कुछ घट रहा है... कहीं ना कहीं एक -दुसरे से जुड़ा हुआ है....

अपनेपन की तलाश , हमें और अकेला कर रही है "रिश्ते" जो एक-दूसरे के विश्वास की नीवं पर बनते हैं... एक दिन वही रिश्ते , रेत की तरह हाथों से फिसल जातें हैं....

मौत
का कारण जो भी रहा हो.... लेकिन आखिर हम कब तक हम अपनी ज़िन्दगी को यूँ ही ख़त्म करते रहेगें ? क्या मर कर ही चैन मिल पायेगा ?

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