8/22/2009

A lovely thought ......



"Death is not the greatest loss in life. The greatest loss is when relationship dies between two people , while they are still alive."

8/12/2009

"कृष्ण जन्माष्टमी"



श्री कृष्ण भारतीय संस्कृति के मूलाधार हैं। उनकी हर लीला में एक संदेश है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर देश के सभी देवालय कृष्णमय हो जाते हैं।

"सम्पूर्णता का दर्शन" करने के लिए कृष्ण के जीवन को समझना अत्यन्त आवश्यक है। यह जन्माष्टमी मनाना इसलिए भी ज़रूरी है कि हमे याद आये कि अपने भीतर अभी उतना ही अन्धकार है जितना कृष्ण का जन्म होने से पहले उसके माता-पिता के घर में था।

जीवन के सही अर्थों को समझने के लिए मन के अन्दर की जन्माष्टमी को मनाना बहुत ज़रूरी है। यह जन्माष्टमी कौन मना सकता है ? जिसके ह्रदय में कृष्ण चेतना मौजूद हो। कृष्ण यानी एक पूर्ण व्यक्तित्त्व । कृष्ण एक सम्पूर्ण पुरूष जो काम करते हैं पूरा करते हैं, अधूरा कुछ नहीं।

आइये , हम सब मिल कर कृष्ण जन्माष्टमी मनाएँ !


8/08/2009

"श्रेष्ठ जनों की सदभावना"



महाभारत युद्घ का पहला दिन था। दोनों सेनायें आमने- सामने खड़ी थीं। युद्घ बस, होने ही वाला था। तभी सबने देखा कि युधिष्ठर बिना शस्त्र कौरव सेना की ओर बढ़ रहे हैं। कुछ ने सोचा, कहीं युधिष्ठर युद्घ से डर तो नहीं गए। कोई संधि प्रस्ताव लेकर तो नहीं जा रहें हैं।

अर्जुन ने भी भगवान् कृष्ण से पूछा, युधिष्ठर को शत्रु के खेमे में जाने की क्या जरुरत है। श्रीकृष्ण ने कहा , अर्जुन युधिष्ठर ने बड़े गुरुजनों का सम्मान कर आधा संग्राम पहले ही जीत लिया है। कौरवों के बड़े आचार्यों की सदभावना तुम्हारे लिए है। बस धनुष उठाओ और आधा संग्राम भी जीत लो। हम सब जानते हैं कि अंत में जीत पांडवों की ही हुई।


आभार - अमर उजाला समाचार पत्र

8/06/2009

"अश्वमेघ यज्ञ"



भगवान् श्रीराम ने "अश्वमेघ यज्ञ" का आयोजन किया । अश्व का विधिवत पूजन करने के बाद उन्होंने अपने भ्राता शत्रुघ्न को सदल-बल अश्व के साथ रवाना कर दिया। भरतजी को देश भर से यज्ञ में भाग लेने आने वाले अतिथियों के स्वागत सत्कार का दायित्व सौंप दिया।

श्रीराम ने अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण से कहा, भैया इस यज्ञ में आये हुए समस्त ऋषि-मुनि , सन्यासी - ब्राहमण , राजागण , गृहस्थ , वानप्रस्थ आदि को पूर्ण संतुष्ट रखने का दायित्व तुम्हारा है। यज्ञ का आयोजक होने के नाते हमारा यह दायित्व है कि सभी को सेवा के माध्यम से प्रसन्न और संतुष्ट रखा जाए। इसलिए जो भी अभ्यागत जो-जो कामना करे, वे जो-जो चाहें , तुम उन्हें वह सब मुझसे बिना पूछे ही दे देना। किसी को निराश नहीं करना। यज्ञ का एक उद्देश्य यह भी होता है, कि प्रजा के तमाम लोग पूर्ण तृप्त और संतुष्ट हों।

कुछ क्षण रूककर श्रीराम ने कहा , यदि कोई तुमसे अयोध्या भी मांग ले, कामधेनु की इच्छा करे, मणि-माणिक्य की अभिलाषा व्यक्त करे , तो भी उसे निराश करने की आवश्यकता नहीं है।

श्री लक्ष्मण जी, श्री राम की उदारता देखकर हतप्रभ रह गये। भरत और लक्ष्मण जी ने यज्ञ में आये सभी अतिथियों की ऐसी सेवा की, कि प्रत्येक व्यक्ति वहां से पूर्ण संतुष्ट होकर ही लौटा।

आभार : श्री शिव कुमार गोयल