5/29/2010

"मोती" की तलाश में ........


जहाज पर बैठ कर , हजारों किलोमीटर की लम्बी समुद्री यात्रा करने से कभी "मोती" प्राप्त नहीं होता है। हमें अगर "मोती" चाहिए तो हमें अपने जीवन को संकट में डालकर समुद्र की गहराई तक आना होगा , तभी हम "मोती" को प्राप्त कर पायेंगें।

5/14/2010

हमारे घर का "उत्सव"....हमारा "शानू"......


"मोटर साइकल" पर , ताऊ जी के साथ चला है।
शानू हमारा , स्कूल चला है।
आने वाले सुनहरे सपनों के फूल,
ज़िन्दगी की माला में पिरोने चला है।"

शानू के स्कूल का नाम हमनें "उत्सव" रखा है। आखों में आत्मविश्वास की नई रौशनी , उसके कोमल हाथों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियों का जादुई स्पर्श , बिना देखे ही बहुत कुछ समझने की सुखद अनुभूति.....हमारे घर के लिए किसी "उत्सव" से कम नहीं है। उसका खेलना, दौड़ना, भागना, खिलखिलाकर हँसना ... हमारे घर के आँगन में मानों कोई उत्सव ही तो है।

ना जाने क्यों बार-बार आप सबसे शानू का ज़िक्र कर बैठता हूँ..... उसका होना.... उसका अस्तित्त्व ... ज़िन्दगी के कठिनतम पलों में भी जीने की एक नई राह दिखाता है...

5/10/2010

बारिश की नन्ही-नन्हीं बूँदें......



आकाश से उतरती हुई बारिश की नन्ही-नन्हीं बूंदों को देखकर आग की लपटें अट्टहास कर हसीं और बूंदों से बोली... "नादान बूंदों ! क्यों अपने आपको नष्ट करने दौड़ी चली आ रही हो ? बूंदों ने मुस्कराते हुए आग की ओर देखा और कूद पड़ीं उन लपटों में....

नन्ही-नन्हीं बूंदों ने धैर्य नहीं खोया , एक-एक करके बूँदें बरसती रहीं....निरंतर झरती रहीं। प्रेम की शीतलता से परिपूर्ण बूंदों ने "क्रोध" रुपी अग्नि को शांत कर दिया। और अंत में यह हुआ कि आग का नामो- निशान तक मिट गया।

बूंदों की सहनशीलता ने आग को ही नहीं वरन सम्पूर्ण वातावरण को भी शीतल और सुखदाई कर दिया था।

5/08/2010

"प्रेम, सहनशीलता , धैर्य और क्षमा से परिपूर्ण मन ही सर्वोत्तम है। "



जीवन के कठिन पलों को भी सहज होकर जीना, मुश्किल ज़रूर है मगर असंभव नहीं। क्रोध किसी बात का समाधान नहीं है। ज़िन्दगी में होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना , एक सिखावन बनती है।

गुस्सा, मनुष्य की विशेषता और विशिष्टता दोनों को ख़त्म कर देता है। हमारा गुस्सा , हमारी सकारात्मक उर्जा को नकारात्मक दिशा में ले जाता है। क्रोध, इर्ष्या और अन्य ऐसी ही वृत्तियाँ हमारी रचनात्मक क्षमता को नष्ट करने लगती हैं। यही नहीं, शरीर स्वास्थ्य पर भी इसके कुप्रभाव पड़े बिना नहीं रहते हैं।

मानसिक संतुलन बनाये रखना , प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने का सबसे अच्छा इलाज है।
सहनशीलता, व्यक्ति के लिए जीवन में शुभ परिवर्तन ही लाती है। हमारा शांत मन , हमारे लिए सदभावना, आशीवाद और शुभकामनाएँ ले कर आता है।

प्रेम, सहनशीलता , धैर्य और क्षमा से परिपूर्ण मन ही सर्वोत्तम है।

5/05/2010

"पुरानी यादें सहारा होतीं हैं जीवन का...."

पुरानी यादें सहारा होतीं हैं जीवन का.... शायद इसी तरह पुरानी लिखी कवितायेँ भी कभी-कभी एक खुशनुमा अहसास दिला जातीं हैं....
अब तो घर पर अपने परिवार के साथ हूँ..... कभी-कभी सोचता हूँ कि कैसे लिख गया यह सब.... क्या दूर रहकर ही यह लिखना संभव हो सका ? शायद दूर रह कर ही ..... है ना....

"जीवन की सबसे महत्पूर्ण बात यह है कि हम दूसरों के लिए क्या करते हैं...."



एक प्रसंग में चंद्रमा ने समुद्र से कहा- "सारी नदियों का पानी आप अपने ही पेट में जमा करते हैं, ऐसी तृष्णा भी किस काम की ?"

समुद्र ने कहा , "जिनके पास अनावश्यक है, उनसे लेकर बादलों द्वारा सर्वत्र न पहुँचाऊ तो स्रष्टि का क्रम कैसे चले ?

यदि सब एकत्र ही करते रहेगें तो औरों को मिलेगा कैसे ? मैं तो अपना कर्त्तव्य निभाता हूँ । अन्य क्या करतें हैं , यह मैं नहीं देखता । "

जीवन की सबसे महत्पूर्ण बात यह है कि हम दूसरों के लिए क्या करते हैं....

5/02/2010

"बस सोच बदलनी है... मन के भावों को बदलना है ..."


सच कहा आपने.... बस सोच बदलनी है... मन के भावों को बदलना है।

देश की सीमा पर, यदि कोई सैनिक जब किसी दुश्मन देश के सिपाही को गोली मार देता है। तब हम उसे सम्मान देतें हैं। और यदि कोई व्यक्ति जब किसी व्यक्ति को मार देता है, तब वह कातिल कहलाता है। तब हम उसे फाँसी पर लटका देतें हैं। कर्म एक ही हुआ , परन्तु दोनों कार्यों के पीछे भाव अलग है।

आतंकवादी "मारा" गया। जवान "शहीद" हुआ। मृत्यू दोनों की हुई, परन्तु दोनों के कर्म के पीछे भावना अलग है।

आदमी कोई भला या बुरा नहीं होता। ना ही उसके कर्म अच्छे या बुरे होते हैं। कर्म तो बस कर्म होता है। हाँ, कर्म के भाव ही उसे अच्चा या बुरा कर देतें हैं। उसके कर्म के पीछे उसकी सोच क्या है ? यह महत्वपूर्ण है। कर्म के भाव ही उसके कार्य को "अच्छा" या "बुरा" कर देतें हैं।

5/01/2010

हैवान - एक लघुकथा ( आभार - अमर उजाला )

उसमें कोई ऐब बचा नहीं था। बुराइयों से सराबोर । मारपीट, गुंडागर्दी । लोग थरथराते थे उसके नाम से। कई हत्याओं के मामलों से भी जुड़ा हुआ था नाम उसका । सभी "हैवान" कहते थे उसको ।
उस दिन, अपने चमचों के साथ वह सिनेमा हॉल में जा पहुँचा । मेरी सीट से लगभग चार-पांच लाइन आगे उसकी मंडली जम गई। ही-ही , हू-हू , हो-हल्ला , सीटियाँ , मेरा फिल्म देखने का सारा मज़ा किरकिरा हो गया था।
लेकिन उनकें रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
तभी अचानक हॉल में खामोशी सी हो गई। बिलकुल सन्नाटा .....परदे पर बड़ा करुण द्रश्य चल रहा था, फिल्म दुखांत थी । समाप्त हुई, तो सभी दर्शकों की आखों में नमी थी।
और जिनको हम सब हैवान कह रहे थे , उन सबकी आखों में भी गीलापन था। उनकी पलकें भी भीगी थी। मानों , कह रही हो, कि आदमी के अन्दर के मन की नमी कभी समाप्त नहीं हो सकती ।