2/24/2010

"जो समय को नष्ट करता है समय उसको नष्ट कर देता है।"

"जो समय को नष्ट करता है समय उसको नष्ट कर देता है।" जीवन में अब कई बार मुझे ऐसा महसूस होता है।
आज वर्तमान समय में हो रहे बदलाव के भी हम लोग ही ज़िम्मेदार हैं।
मेरा मानना है कि आज हम इंसानों के पास सब कुछ है बस "सब्र" नहीं है। और यही हम सबकी परेशानी का कारण है।
तेज़ रफ्तार और बिना मंजिल का सफ़र कभी पूरा नहीं होता है।

2/22/2010

एक बोध कथा

एक रात भयंकर तूफान आया । सैकड़ों विशालकाय पेड़ धराशायी हो गये। अनेक किशोर वृक्ष भी थे जो बच तो गये थे पर बुरी तरह सकपकाये खड़े थे । उसमें नन्हीं दूब भी थी ।

प्रात: काल सूर्य ने अपनी रश्मियाँ धरती पर बिखेरी , डरे हुए पौधों को देख कर किरणों ने पूछा "तुम सब इतने सहमे - सहमे से क्यों हों ? "

किशोर पौधों ने कहा -" देवी किरणों , ऊपर देखो हमारे कितने पुरखे धराशायी पड़ें हैं। रात के तूफान ने उन्हें उखाड़ फेंका । ना जाने कब यही स्थिति हमारी भी आ बने । "

किरणें हंसी और पौधों से बोलीं , आओ इधर देखो ये पेड़ तूफान के कारण नहीं बल्कि जड़ें खोखलीं हो जाने के कारण गिरे हैं, तुम अपनी जड़ें मज़बूत रखना । तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।

2/16/2010

"बस पहल , खुद से ही करनी है ...."

"अगर महात्मा गाँधी और भगत सिंह एक होते तो हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और होता" - "बुद्धं ...." की इस एक लाइन ने आज के परिपेक्ष्य में अपनी सारी बात कह दी है।
चार दिन की ज़िन्दगी में कितने दुश्मन बना लिए हमने ? लोगों के मन में एक -दूसरे के लिए इतनी नफरत क्यों ? प्रेम भाव क्यों नहीं ? भगवान् के दिए इस मूल्यवान जीवन को हम सभी किसी सार्थक काम में क्यों नहीं प्रयोग करते हैं.....
हमारे अंत: करण में जब तक संवेदनशीलता का स्रोत प्रवाहित रहता है तब तक हम समाज के प्रति कोई भी प्रतिकूल कार्य नहीं कर सकते हैं।

आखें गीली होना आदि-आदि तो छोटी बातें हैं मुख्य बात है ह्रदय का द्रवित होना। आतंरिक अहिंसा की अभिव्यक्ति करुणा और संवेदनशीलता में होती है।

जिस व्यक्ति के ह्रदय में संवेदनशीलता का झरना निरंतर प्रवाहित रहता है, वह किसी के प्रति क्रूर नहीं बन सकता है , वह किसी का अहित नहीं सोच सकता । और जीवन में कभी भी किसी के साथ कोई बुरा बर्ताव नहीं कर सकता है।
कमी कहाँ हैं ? हम लोग क्यों रास्ता भटक रहें हैं ? हिंसा का रास्ता क्यों अपना रहें हैं ?

हमें अपने अन्दर और अपने आस-पास ऐसा वातावरण बनाना होगा, जिससे हमारी संवेदनशीलता हमेशा बनी रहे। बस पहल , खुद से ही करनी है। अगर हम किसी पर उंगली उठाते हैं तो हमारे हाथ की बाकी चार उंगलियाँ हमारी ओर हैं। पहले खुद को बदलना है तभी हम समाज को बदल पायेंगें।
अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है, हम सब मिलकर एक नयी दुनिया बसायें , जहाँ सहयोग, प्रेम, संवेदनाओं के फूल सदा मुस्कराएँ। एक- दूसरे के दुःख दर्द को समझें और सबको प्रेम से जीना सीखायें ।

2/14/2010

आखिर कब तक ?

इन विस्फोटों से मेरा मन बहुत व्यथित है। बेगुनाह इंसानों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ आखिर कब तक ? खून के छींटें हमारे चेहरे पर भी दिखाई दे रहें है।
हर भारत वासी का मन बहुत आहत है । अब यह चोटें नासूर बन गयीं हैं । भारत पर लगातार घाव ......गहरे घाव....इस दर्द का क्या कोई इलाज़ है हम सबके पास ?
नेताओं के भाषण .... फिर एक नयी जांच...... मरने के नाम पर चंद रुपये........ मीडिया द्वारा दिखाई गई लाशें.... आम आदमी के मन में दहशत का मौहाल.....एक दुसरे पर आरोप ........कुछ दिन की ख़ामोशी भरी हुई शांति.....
और फिर कुछ दिनों के बाद फिर वही हादसों के दौर..... आखिर कब तक ?

2/08/2010

"धूप-छाँव का खेल है ज़िन्दगी...."

कभी लगता है मंजिल करीब आ गयी है और कभी मंजिल बहुत दूर नज़र आती है, "हर दिन एक सा नहीं रहता" यह हम सब जानते हैं फिर भी मन में एक द्वन्द चलता रहता है.... जब तक मंजिल पर पहुँच नहीं जाते हैं। मन में उठ रहे विचारों के इसी द्वन्द को आज आपके साथ share करना चाहूँगा।
कभी ज़िन्दगी , धूप से घिरी नज़र आती है तो कभी छाँव में दिखाई देती है। छाँव की अहमियत का अहसास तो धूप में चलने पर ही महसूस हो सकता है। इसी धूप-छाँव के खेल में ज़िन्दगी गुज़र जाती है, लेकिन खेलना भी ज़रूरी है जीने के लिए ।
जीवन के इस खेल में कोई मध्यांतर नहीं होता है, बस खेलते ही रहना है। जीवन की अंतिम सांस तक बस मैदान में डटे रहना है। सिर्फ ताली बजाने के लिए , दर्शक बन कर मैदान में नहीं बैठना है, "खिलाड़ी " बन कर मैदान में खेलना है और जम कर खेलना है।
ज़िन्दगी कुछ पलों में ख़त्म होने वाली "100 m." की तेज़ दौड़ नहीं है। कई बरसों तक चलने वाली एक मैराथन है, और अभी मीलों चलना है।

2/05/2010

"Save Our Tigers .....1411 only in India .....".



"केवल - "1411" , यह नंबर अब सभी को याद हो गया है। ख़ास तौर पर सभी बच्चों को भी! मेरा छोटा बेटा "वात्सल्य" भी अब तो पूछता है - "पापा, उसकी माँ कब आयेगी ? " उसके इस सवाल का मेरे पास कोई ज़वाब नहीं है । आप तो कहते हो, कि आप सब काम कर सकते हो - "तो उसकी माँ को उसके पास ढूँढ कर ला दो ना ...पापा ..."
शायद , हम में से किसी के पास नहीं है मेरे बेटे के इस सवाल का जवाब ।

"Save our Tigers" अभियान के अंतर्गत T.V. पर दिखाई जाने वाली यह छोटी से ह्रदयस्पर्शी फिल्म हम सबको वाकई कुछ सोचने को मजबूर कर जाती है। उस शावक का मासूम चेहरा बहुत देर तक आखों के सामने घूमता रहता है।

मोबाइल कंपनी द्वारा वन्य जीव जंतुओं के जीवन की सुरक्षा के लिए जारी किया गया यह विज्ञापन अत्यंत प्रभावशाली बन गया है। लाजवाब फोटोग्राफी और कबीर बेदी जी की पुरजोर आवाज़ ने विज्ञापन को और भी शानदार बना दिया है। अन्य companies और groups को भी अपने product के साथ इसी प्रकार के सामाजिक और जनहित से जुड़े प्रसंग को शामिल करना चाहिए।

बाघ ही नहीं वरन प्रत्येक जीव- जंतु हमारे लिए महत्वपूर्ण है। प्रत्येक जीव का जीवन अमूल्य है। जब हम किसी को जीवन नहीं दे सकते हैं तो हमें किसी की ज़िन्दगी लेने का भी कोई अधिकार नहीं है। अगर , हमारे बच्चे भी हमें इसी तरह से ढूँढें तो ? आईये, हम सब मिल कर उनके जीवन को बचाने के लिए सार्थक प्रयास करें ।

बाघों को संख्या , यदि इसी तरह कम होती गयी तो वह दिन दूर नहीं हैं जब हम अपने बच्चों को बाघों की सिर्फ तस्वीरें ही दिखा पायेगें।