8/06/2009

"अश्वमेघ यज्ञ"



भगवान् श्रीराम ने "अश्वमेघ यज्ञ" का आयोजन किया । अश्व का विधिवत पूजन करने के बाद उन्होंने अपने भ्राता शत्रुघ्न को सदल-बल अश्व के साथ रवाना कर दिया। भरतजी को देश भर से यज्ञ में भाग लेने आने वाले अतिथियों के स्वागत सत्कार का दायित्व सौंप दिया।

श्रीराम ने अपने प्रिय भ्राता लक्ष्मण से कहा, भैया इस यज्ञ में आये हुए समस्त ऋषि-मुनि , सन्यासी - ब्राहमण , राजागण , गृहस्थ , वानप्रस्थ आदि को पूर्ण संतुष्ट रखने का दायित्व तुम्हारा है। यज्ञ का आयोजक होने के नाते हमारा यह दायित्व है कि सभी को सेवा के माध्यम से प्रसन्न और संतुष्ट रखा जाए। इसलिए जो भी अभ्यागत जो-जो कामना करे, वे जो-जो चाहें , तुम उन्हें वह सब मुझसे बिना पूछे ही दे देना। किसी को निराश नहीं करना। यज्ञ का एक उद्देश्य यह भी होता है, कि प्रजा के तमाम लोग पूर्ण तृप्त और संतुष्ट हों।

कुछ क्षण रूककर श्रीराम ने कहा , यदि कोई तुमसे अयोध्या भी मांग ले, कामधेनु की इच्छा करे, मणि-माणिक्य की अभिलाषा व्यक्त करे , तो भी उसे निराश करने की आवश्यकता नहीं है।

श्री लक्ष्मण जी, श्री राम की उदारता देखकर हतप्रभ रह गये। भरत और लक्ष्मण जी ने यज्ञ में आये सभी अतिथियों की ऐसी सेवा की, कि प्रत्येक व्यक्ति वहां से पूर्ण संतुष्ट होकर ही लौटा।

आभार : श्री शिव कुमार गोयल

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