1/27/2010

"राष्ट्रीय पर्व पर यह उदासीनता क्यों ? "

आज एक बात आपसे share ज़रूर करूँगा, 26 जनवरी को मैंने लगभग 40 अपने परिचितों को गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में SMS भेजे थे.... और आप को यह जानकार शायद आश्चर्य होगा कि किसी भी व्यक्ति का reply नहीं आया (विवेक जी, मैं दिलजीत जी को धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिन्होनें मेरे SMS के बाद फौरन मुझे फ़ोन करके गणतंत्र दिवस की बधाई दी , 40 व्यक्तियों में से सिर्फ उनका ही reply आया।
जहाँ हम दिवाली, ईद पर और friendship day , valantine day पर और भी ना जाने रोज यूँ ही कई SMS एक-दूसरे को करते रहते हैं.... वहीँ अपने इस राष्ट्रीय पर्व पर यह उदासीनता क्यों ? उस दिन तो मुझे यह महसूस हुआ कि क्या वाकई आज 26 जनवरी है ? मन मेरा उस दिन बहुत उदास हुआ यह सब देखकर ..... क्या हम सब इतने व्यस्त हो गये हैं ? क्या इस राष्ट्रीय पर्व का हमारे जीवन में कोई महत्व नहीं है ?

1/21/2010

"आँसू ख़ुशी के हों या दुःख के , छलक जाएँ तो ही अच्छा है... "

मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि यह सब लिखना कई बार बड़ा मुश्किल सा हो जाता है और अगर अपने मन की बातों को कागज़ पर ना लिखूं तब और भी ज्यादा मुश्किल हो जाती है ..... मन की भावनाओं को रोक पाने में .....
आँसू ख़ुशी के हों या दुःख के , छलक जाएँ तो ही अच्छा है... नहीं तो वह हमारे मन की घुटन की वज़ह बन जाते हैं। मन में उमड़ रहे बादलों का आखों से बरस जाना ही बेहतर है। तभी, मनुष्य की संवेदनाओं की धरती की नमी बनी रहती है विचारों के बीज अंकुरित होते रहते हैं और फिर एक दिन छायादार पेड़ बन जाते हैं.....
हम चाहे अपने घर से दूर रहे या पास...."परिवार" एक संबल के रूप में हमेशा हमारे साथ रहता है... जन्म हम बाद में लेते हैं....रिश्ते पहले बन जातें हैं.... मम्मी-पापा, दादा-दादी, नाना-नानी, बहना, भाई,चाचा-चाची और ना जाने कितने सारे रिश्ते नाते जुड़ जाते हैं...... जन्म के पहले ही..... इन रिश्तों के साथ ही तो हम इतना जी जाते हैं।
इन रिश्तों के बिना हम कुछ नहीं .... हमारा अस्तित्व ही नहीं होगा इन सब रिश्ते- नातों के बिना.... हम सबका "परिवार" ही हमारे जीवन जीने का सबब है...... हमारे दिल की धड़कन है...
समय के साथ कुछ नये रिश्ते भी बनते जाते हैं। सच्चे मित्रों के साथ ज़िन्दगी और भी आसान हो जाती है जीवन के कठिन पलों में भी होठों पर मुस्कराहट रहती है और फिर ज़िन्दगी यूँ ही हँसते हुए गुज़रती रहती है...

1/12/2010

स्वामी विवेकानंद जी जन्म दिवस - 12 जनवरी 2010



आज स्वामी विवेकानंद जी के जन्मदिवस पर उनके महान व्यक्तित्व को स्मरण करता हूँ। अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए उन्हें शत: शत : नमन करता हूँ।
स्वामी जी एक देशभक्त और उच्च कोटि के महात्मा ही नहीं वरन एक श्रेष्ठ कवि भी थे। उनकी हर कविता में जीवन का सन्देश है। जो हमारा पथ-प्रदर्शक बनकर हमें जीवन के सही मूल्य का ज्ञान कराता है।
आज इस महत्वपूर्ण दिवस पर उनकी द्वारा लिखी एक कविता "Hold on yet a while brave heart" को आप सबके साथ share करने की अनुमति चाहता हूँ।
एक प्रसंग में स्वामी जी ने यह कविता खेतड़ी के महाराज को लिखी थी। उनकी यह कविता मुझे सर्वाधिक प्रिय है। इस कविता का हर शब्द हम सबको जीवन में प्रेरणा प्रदान करने वाला है।
इस कविता का शीर्षक है : "धीरज रखो तनिक और हे वीर ह्रदय !"
"भले ही तुम्हारा सूर्य बादलों से ढक जाये
आकाश उदास दिखाई दे,
फिर भी धैर्य धरो कुछ हे वीर ह्रदय,
तुम्हारी विजय अवश्यम्भावी है !
शीत के पहले ही ग्रीष्म आ गया,
लहर का दबाव ही उसे उभारता है।
धूप- छाँव का खेल चलने दो,
और अटल बनो , वीर बनो !
जीवन में कर्त्तव्य कठोर है,
सुखों के पंख लग गये हैं,
मंजिल दूर, धुंधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,
अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ के साथ !
कोई कृति खो नहीं सकती और
न कोई संघर्ष व्यर्थ जायेगा ,
भले ही आशायें क्षीण हों जाएँ,
और शक्तियां जवाब दे दें !
हे वीरात्मन, तुम्हारे उत्तराधिकारी
अवश्य जनमेगें ,
और कोई सत्कर्म निष्फल न होगा !
यद्धपि भले और ज्ञानवान कम ही मिलेंगें,
किन्तु, जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथ में होगी,
यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिंता न करो, मार्ग - प्रदर्शन करते जाओ!
तुम्हारा साथ वे देंगें, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,
आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन ,
तुम्हारा सर्वमंगल हो !

1/08/2010

"हमारा आत्म-विश्वास ही हमारा पथ-प्रदर्शक है .."



आत्म-विश्वास ही वह अनुपम शक्ति है जिसके बल पर हम अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हमारा आत्म-विश्वास ही हमारा पथ-प्रदर्शक है। यदि कोई शक्ति पहाड़ों को तराश सकती है तो वह शक्ति केवल मनुष्य की खुरदरी उँगलियों में है।
यदि हमारा मन ही मरा हुआ है तो शरीर क्या करेगा ? बुझा हुआ दीपक , अँधेरे में राह नहीं दिखा सकता है। अटल जी द्वारा लिखी एक कविता की यह पंक्तियाँ दिल को छू जाती हैं।
" टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता।
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता। "
हम जैसा भाव मन में रखते हैं, वैसे ही हो जाते हैं। हमारे भाव ही हमारे व्यक्तित्व का सर्जन करते हैं। हमारे विचार ही हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं।
समाज की उन्नति , छोटे विचार के बड़े आदमी पर नहीं बल्कि बड़े विचार के छोटे आदमियों पर निभर है।
"मरना भला है उसका, जो अपने लिए जिये ।
जीता है वह , जो मर चुका इंसान के लिये । "

1/07/2010

"Hope, Faith, Peace and Love !!!"



The four candles burns slowly,
The ambiance was so soft you could hear the talking.
The first one said: “I am peace !
However, no body can keep me lit. I believe, I will go out.”
Its flame rapidly diminishes and goes out completely.
The second one says: “I am faith !
Most of all, I am no longer indispensable, so it does not make any sense I stay lit any longer.”
When it finishes talking, a breeze softly blew on it putting it out.
Sadly, the third candle spokes in its turn : “I am love !
I have not got the strength to stay lit . People put me aside and does not understand my importance. They even forget to love those who are nearest to them .”
And waiting no longer it goes out.
Suddenly a child enter in the room and sees three candles are not burning.
“Why are you not burning ? You are supposed to stay lit till the end.”
Saying this, the child begins to cry…..
Then the fourth candle said: “Do not be afraid, while I am still burning , we can re-light the other candles, I am HOPE.”
With shining the eyes, the child took the candle of hope and lit the other candles.
The flame of hope should never go out from our life….

and that each of us can maintain Hope, Faith, Peace and Love !!!

1/06/2010

"धूप" का प्रथम आगमन .... 2010 में ..."



आप तो जानते ही हैं , आजकल में अपने गृह नगर में हूँ। पिछले कई दिनों से मेरे शहर ने कोहरे की सफ़ेद चादर ओढ़ रखी थी। तापमान भी 5-6 degree तक आ गया था।

आज मेरे शहर में , नूतन वर्ष 2010 में "धूप" का प्रथम आगमन हुआ। वह गुनगुनी धूप पड़ोसी की छत की दीवार से उतर कर मेरे घर की छत पर आकर बैठ गयी। फिर धीरे-धीरे छत पर लगे लोहे के जाल से होती हुई वह घर के आँगन में छम-छम करती हुई उतर आई। उसकी आहट सुन कर सब आँगन में आ गये। पहले तो विश्वास नहीं हुआ उसे देखकर, आज कई दिनों बाद जो आई थी हम सब की लाडली वह "गुनगुनी धूप".......

सभी ने नये वर्ष में पहली बार आई जाड़ों की गुनगुनी धूप का नई-नवेली दुल्हन की तरह स्वागत किया । घर के सभी सदस्यों ने फिर खूब सारी बातें की उससे । "इतने दिन कहाँ रहीं ?".... मम्मी जी और पापा जी तो दोपहर बाद तलक उससे बातें करते रहें। और धूप के साथ ही छत पर बैठे रहे।

सचमुच, जाड़ों के इन सर्द दिनों में "धूप" , सभी बुजुर्गों के लिए किसी "संजीवनी" से कम नहीं है।

साँझ ढले , उसकी प्रथम विदाई का समय भी आ गया। सबका मन बहुत उदास हुआ। "मौसम ने साथ दिया तो कल भी ज़रूर आऊँगी " --- धूप ने कहा यह चलते-चलते । धूप की बातें सुन कर मम्मी और पापा जी की ख़ुशी दोगुनी हो गयी।

यही जीवन है , इस छोटी-छोटी बातों में ढेर सारी खुशियाँ मिल जातीं हैं । और ज़िन्दगी हर मौसम में भी हमेशा मुस्कराती रहती है।

1/03/2010

Taken from 'The Book of Life', daily meditations with Krishnamurti.



Listening is an art not easily come by, but in it there is beauty and great understanding। We listen with the various depths of our being, but our listening is always with a preconception or from a particular point of view.
We do not listen simply; there is always the intervening screen of our own thoughts, conclusions, and prejudices....To listen there must be an inward quietness, a freedom from the strain of acquiring, a relaxed attention.
This alert yet passive state is able to hear what is beyond the verbal conclusion. Words confuse; they are only the outward means of communication; but to commune beyond the noise of words, there must be in listening an alert passivity. Those who love may listen; but it is extremely rare to find a listener.
Most of us are after results, achieving goals; we are forever overcoming and conquering, and so there is no listening. It is only in listening that one hears the song of the words.