5/01/2010

हैवान - एक लघुकथा ( आभार - अमर उजाला )

उसमें कोई ऐब बचा नहीं था। बुराइयों से सराबोर । मारपीट, गुंडागर्दी । लोग थरथराते थे उसके नाम से। कई हत्याओं के मामलों से भी जुड़ा हुआ था नाम उसका । सभी "हैवान" कहते थे उसको ।
उस दिन, अपने चमचों के साथ वह सिनेमा हॉल में जा पहुँचा । मेरी सीट से लगभग चार-पांच लाइन आगे उसकी मंडली जम गई। ही-ही , हू-हू , हो-हल्ला , सीटियाँ , मेरा फिल्म देखने का सारा मज़ा किरकिरा हो गया था।
लेकिन उनकें रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
तभी अचानक हॉल में खामोशी सी हो गई। बिलकुल सन्नाटा .....परदे पर बड़ा करुण द्रश्य चल रहा था, फिल्म दुखांत थी । समाप्त हुई, तो सभी दर्शकों की आखों में नमी थी।
और जिनको हम सब हैवान कह रहे थे , उन सबकी आखों में भी गीलापन था। उनकी पलकें भी भीगी थी। मानों , कह रही हो, कि आदमी के अन्दर के मन की नमी कभी समाप्त नहीं हो सकती ।

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