7/15/2010

“घर” में एक “माँ” बहुत ज़रूरी है।"

आपका ह्रदय से कोटि-कोटि आभार । लेकिन इस कविता का विषय मुझे आपके इस सार्गार्वित लेख से ही मिला है। अंत: इस कविता के सर्जन का सारा श्रेय सिर्फ आपको ही है । मैंने कुछ नहीं लिखा है.... आपके लेख ही लिखातें हैं.... और शब्द अपनेआप ही बनते जातें हैं.... सर जी...

इस लेख में लिखी यह पंक्ति " कोई है जो अपने बच्चे के लिए खाना बनाना चाहता है, उसे बड़ा होते देखना चाहता है" दिल को उतर गयी यह पंक्ति.... उस माँ को मेरा सादर प्रणाम है यह दो पंक्तियाँ उन्हीं माँ के लिए लिखी थीं ...

"संवर जाती है ज़िन्दगी बच्चों की,
“घर” में एक “माँ” बहुत ज़रूरी है।"

वहीँ दूसरी तरफ एक दूसरी पंक्ति "Kaun kich kich uthaayega unki…" ने मन को सोचने पर मजबूर कर दिया मुझे.... क्या सच में कोई ऐसा भी सोच सकता है.....

मेरे मन में जो है वही आपके साथ share कर रहा हूँ....

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