9/25/2010

"गंगा का पानी तो उतर गया..मगर, आखों में पानी दे गया "

प्रिय विवेक जी,
"गंगा का पानी तो उतर गया ।
मगर, आखों में पानी दे गया ।"
प्रकृति के इस कहर को मैंने बहुत करीब से देखा । प्रकृति ने अपना बहुमूल्य खज़ाना मानव को दिल खोलकर , खुले हाथों से दिया है । लेकिन हम लोगों ने उसका आभार व्यक्त करने के बजाये , अपने स्वार्थ के कारण उसे ही खतरे में दाल दिया । और जब प्रकृति को गुस्सा आता है तब कुछ नहीं शेष रहता ....सब कुछ नष्ट हो जाता है ।
सच में विवेक भाई , हजारों घर ऐसे हैं मेरे शहर में, जहाँ सचमुच कुछ नहीं बच । बस टूटी हुई दीवारें, कई फुट मिट्टी , और बिखरे हुए सपने .... । कई घरों का तो सारा सामान ही बह गया पानी में...
बहुत कष्टदायी था यह अनुभव "जब लोगों के चारोँ तरफ पानी ही पानी था। पानी से घिरे थे। और फिर भी "पानी-पानी" मांग रहे थे। पीने का पानी चाहिए थे उनको ....
तीन दिन तक रहा पानी का ताडंव मेरे शहर में..... फिर से शुरुआत करनी है लोगों को ... बरसों लगेगें दुबारा अपना आशियाँ बनाने में..... और पता भी नहीं कि बना भी पायेगें या नहीं.... ।
यूँ तो हमारी कालोनी तक पानी नहीं आया था... हम सुरक्षित थे.... पर जो घर पानी में डूब गये वह भी तो मेरे शहर के ही लोग थे.... मेरे अपने थे....
आज भी मैं कई घर होकर आया हूँ.... तबाही के मंज़र ने मेरी भी आखें नम कर दी । क्या सब की यह तबाही एक साथ ही लिखी थी विवेक जी ?
आज देखा मैंने उस जगह जाकर .... लोग बड़ी शिद्दत से फिर से अपना घर ठीक करने में लगे थे.... एक नयी उम्मीद के साथ.... यह महसूस किया मैंने...
शलभ गुप्ता

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