2/08/2010

"धूप-छाँव का खेल है ज़िन्दगी...."

कभी लगता है मंजिल करीब आ गयी है और कभी मंजिल बहुत दूर नज़र आती है, "हर दिन एक सा नहीं रहता" यह हम सब जानते हैं फिर भी मन में एक द्वन्द चलता रहता है.... जब तक मंजिल पर पहुँच नहीं जाते हैं। मन में उठ रहे विचारों के इसी द्वन्द को आज आपके साथ share करना चाहूँगा।
कभी ज़िन्दगी , धूप से घिरी नज़र आती है तो कभी छाँव में दिखाई देती है। छाँव की अहमियत का अहसास तो धूप में चलने पर ही महसूस हो सकता है। इसी धूप-छाँव के खेल में ज़िन्दगी गुज़र जाती है, लेकिन खेलना भी ज़रूरी है जीने के लिए ।
जीवन के इस खेल में कोई मध्यांतर नहीं होता है, बस खेलते ही रहना है। जीवन की अंतिम सांस तक बस मैदान में डटे रहना है। सिर्फ ताली बजाने के लिए , दर्शक बन कर मैदान में नहीं बैठना है, "खिलाड़ी " बन कर मैदान में खेलना है और जम कर खेलना है।
ज़िन्दगी कुछ पलों में ख़त्म होने वाली "100 m." की तेज़ दौड़ नहीं है। कई बरसों तक चलने वाली एक मैराथन है, और अभी मीलों चलना है।

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