1/21/2010

"आँसू ख़ुशी के हों या दुःख के , छलक जाएँ तो ही अच्छा है... "

मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि यह सब लिखना कई बार बड़ा मुश्किल सा हो जाता है और अगर अपने मन की बातों को कागज़ पर ना लिखूं तब और भी ज्यादा मुश्किल हो जाती है ..... मन की भावनाओं को रोक पाने में .....
आँसू ख़ुशी के हों या दुःख के , छलक जाएँ तो ही अच्छा है... नहीं तो वह हमारे मन की घुटन की वज़ह बन जाते हैं। मन में उमड़ रहे बादलों का आखों से बरस जाना ही बेहतर है। तभी, मनुष्य की संवेदनाओं की धरती की नमी बनी रहती है विचारों के बीज अंकुरित होते रहते हैं और फिर एक दिन छायादार पेड़ बन जाते हैं.....
हम चाहे अपने घर से दूर रहे या पास...."परिवार" एक संबल के रूप में हमेशा हमारे साथ रहता है... जन्म हम बाद में लेते हैं....रिश्ते पहले बन जातें हैं.... मम्मी-पापा, दादा-दादी, नाना-नानी, बहना, भाई,चाचा-चाची और ना जाने कितने सारे रिश्ते नाते जुड़ जाते हैं...... जन्म के पहले ही..... इन रिश्तों के साथ ही तो हम इतना जी जाते हैं।
इन रिश्तों के बिना हम कुछ नहीं .... हमारा अस्तित्व ही नहीं होगा इन सब रिश्ते- नातों के बिना.... हम सबका "परिवार" ही हमारे जीवन जीने का सबब है...... हमारे दिल की धड़कन है...
समय के साथ कुछ नये रिश्ते भी बनते जाते हैं। सच्चे मित्रों के साथ ज़िन्दगी और भी आसान हो जाती है जीवन के कठिन पलों में भी होठों पर मुस्कराहट रहती है और फिर ज़िन्दगी यूँ ही हँसते हुए गुज़रती रहती है...

No comments:

Post a Comment